भगवान देवनारायण जी का परिचय

भगवान देवनारायण जी का जीवन परिचय


गुर्जर हेमराज जैतगढ़ आसीन्द


वर्तमान राजस्थान और मध्यप्रदेश के लोक अंचलों में ऐतिहासिक रूप से वर्तमान भारतवर्ष के मध्ययुगीन गुर्जर देश की भूमि पर शाक भरी के चौहान कुल में उत्पन्न बाघरावत के 24 पुत्रों एवं राण भिणाय के राणा की सेनाओं के मध्य ऐतिहासिक बगड़ावत भारत युद्ध हुआ, कहा जाता है।

लोक जीवन में श्री देवनारायण पढै् कथा भागवत रूप प्रस्थापित व श्री देवनारायण मन्दिरों में पाट्ज्योतिरूप पूजित एवं उपास्य है। श्री देवनारायण फड़ में चित्रात्मक रूप से तत्कालीन गुर्जरदेशीय स यता एवं संस्कृति तथा स पूर्ण बगड़ावत भारत एवं ब्रह्माण्डीय सृष्टि प्रलय लीलान्तर्गत गुर्जर वंश उद्धारक लोक आराध्य श्री देवनारायण अवतार लीला प्रतीकिकृत है। श्री देवनारायण पढै् के स बन्ध में तत्कालीन समय से ही बगड़ावत भारत लोकवार्ता प्रचलित है।

प्रचलित लोकवार्ता के स बन्ध में बगड़ावत भारतवार्ता के नाम से साहित्य रूप कुछ पुस्तकें राजस्थान में उपलब्ध हैं। जिनमें प्रमुख रानी लक्ष्मीकुमारी चूण्डावत द्वारा स पादित बगड़ावत श्री देवनारायण महागाथा का प्रकाशन राजपाल एण्ड सन्स नई दिल्ली एवं पंचशील प्रकाशन जयपुर द्वारा किया गया है। श्री देवनारायण पुराण सचित्र लीला नामक पुस्तक का प्रकाशन श्री सरस्वती प्रकाशन अजमेर द्वारा किया गया है। वीर गुर्जर मेरठ (उ.प्र.) द्वारा बगड़ावत महाभारत नामक उपन्यास प्रकाशित किया गया है। प्रकाशित पुस्तकों में बगड़ावतों एवं श्री देवनारायण अवतार लीला स बन्धी कथ्य एवं कथा के विषय में व्यापक रूप से लोकवार्ता विज्ञान एवं प्रतीक शास्त्र की दृष्टि से शोध विमर्श एवं पुर्नसृजन की आवश्यकता है।

बगड़ावत भारत लोकवार्ता के प्रसंगों का तात्पर्य- चौहान वंशीय बगड़ावत गुर्जरों की वंशावली, बगड़ावत बाघरावत पुत्रों का विवाह, सवाई भोज को भगवान शिव द्वारा 12 वर्ष की काया माया के वरदान की प्राप्ति, बगड़ावतों की दानवीरता और शौर्यगाथा, बगड़ावतों की भक्ति और शक्तिरूप याति की चतुर्भुज भगवान नारायण द्वारा छळपूर्वक परीक्षा किया जाना तथा बगड़ावत सवाईभेाज पत्नी साढू को बगड़ावत कुल में पुत्र रूप स्वयं अवतरित होने का वचन देना। बगड़ावतों को छळने के लिए आदिशक्ति महाकाली का गुर्जर देशीय धरा धाम पर जैमती रूप अवतरण। जैमती द्वारा विवाह के लिए बगड़ावत सवाईभोज का वरण करना, जैमती को लेकर प्रतीकात्मक रूप से गुर्जर वंशों के मध्य पारस्परिक बगड़ावत भारत युद्ध होना। युद्ध भूमि में 24 बगड़ावतों के मुण्डों की माला धारण करके भगवान नारायण को आदिशक्ति महाकाली रूपा जैमती द्वारा भेंट करना, भगवान श्री देवनारायण का मालासेरी डूंगरी में कमल पुष्प अवतारी रूप प्राकट्य पश्चात् अपने ननिहाल मालवा में बाल लीलाएं करना, तत्पश्चात् कुलभाट छोछू द्वारा पूर्वज बगड़ावतों की स्मृति करवाये जाने पर गडगोठां वापस लौटने पर अपने बन्धुओं प्रतीकात्मक रूप से गुर्जर वंशों को पुर्नसंगठित करके पूर्वजों के वैभव को पुर्नस्थापित करने एवं पूर्वजों के बैर को निर्बैर अर्थात् निरतिशय प्रेम को उपलब्ध होने के पथ का सृष्टि के मानव मात्र के लिए आलोकित करने के प्रसंगों से परिपूर्ण है। वार्ता में प्रसंगानुसार यत्र-तत्र बगड़ावतकालीन ऐतिहासिक दर्शनीय एवं आस्था स्थलों का भी उल्लेख है।

बगड़ावत श्री देवनारायण महागाथा में आये उल्लेख के अनुसार श्री देवनारायण की अन्त: प्रेरणा से इनके कुल भाट छोछू ने चित्रात्मक शैलीरूप पढै् के प्रतीकों को चित्रांकित करवाया तथा संकेतिक प्रतीकों के अर्थ को वार्तारूप व्यक्त किया। श्री देवनारायण पढै् में प्रतीकिकृत प्रतीकों में सर्वप्रथम गणेश व पौराणिक समुद्र मन्थन का दृश्य प्रतीकिकृत है। यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि बगड़ावतों के पूर्वज गुर्जर वंशीय शासकों के शासनकाल में आर्यावर्त के जिस भौगोलिक क्षेत्र को गुर्जर देश नाम से इतिहास की पुस्तकों में उल्लेखित किया गया है, उस क्षेत्र में साहित्य, कला और शिल्प विकास अपनी उच्चतम अवस्था में था, फिर बगड़ावत एवं श्री देवनारायण का उल्लेख कथा भागवत रूप धार्मिक साहित्य में क्यों नहीं है। श्री देवनारायण मन्दिर में प्रतिष्ठित पाट के स्थान पर मूर्ति क्यों नहीं है? जबकि उस काल में विष्णु के विभिन्न अवतारों की भव्य मूर्तियाँ निर्मित होने के प्रमाण मिलते हैं। श्री देवनारायण फड़ के प्रतीकों में ब्रह्माण्डीय सृष्टि, पृथ्वीलोक, यज्ञकर्म, चतुर्भुज विष्णु, पंचतत्वात्मक सृष्टि सर्ग, क्षत्रिय-ब्राह्मण, परस्पर विवाह रूप वर्ण और जाति व्यवस्था, रामायण काल, महाभारत युग, गुर्जर आदितीर्थ पुष्कर, नागपहाड़, बगड़ावतों द्वारा गौचारण, शिवशक्ति योग, आगम-निगम, शैव-शाक्त, तंत्र शास्त्र, आत्मा-परमात्मा, देह तत्व विज्ञान, मायातत्व विज्ञान सहित, बगड़ावत युद्ध संकेतित प्रतीप्रतीक के लिए नहीं। संकेत से उत्पन्न भावना का बिना प्रतीकीकरण किये कोई बात समझ में नहीं आ सकती। प्रतीक निर्देशन करने के कार्य का प्रतीकिकरण है। शब्दों का स्वत: कोई अर्थ नहीं होता, आर भ में शब्द प्रतीकरूप था, बाद में उसका भावनामय रूप हुआ। श्री देवनारायण फड़ वार्ताकार फड़ में चित्रित चित्रों के संकेत का भावनामय प्रतीकीकरण करते हुए शब्द (वाणी-नाम) के माध्यम से वार्ता के कथन को श्रोताओं के स मुख प्रस्तुत करता है। मन्दिर प्रतिष्ठित श्री देवनारायण पाट्ज्योति रूप ध्यान विधि का प्रतीकीकरण है। इस अर्थ बगड़ावत भारत लोकवार्ता का प्रतिपाद्य विषय गुर्जर वंशों में परस्पर हुए ऐतिहासिक युद्ध एवं श्री देवनारायण अवतार प्रतीक दर्शन के अनुसार... चित्त से बड़ा ध्यान है। ध्यान से भी बड़ा विज्ञान है। ब्रह्म, आत्मा, चेतना, जीव, नाम, वाणी, मन, संकल्प, चित्त, ध्यान-विज्ञान के बल पर जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए वाणी तथा मन दोनों को लीन करना पड़ता है और इसका साधन है विज्ञान। विज्ञान से ही ध्यान प्राप्त होता है। ध्यान के लिए जो साधन जुटाए जाते हैं उनमें सबसे प्रमुख वाणी और दूसरा स्थान प्रतीक का है। बिना प्रतीक के ध्यान नहीं हो सकता। बिना प्रतीक के वाणी की श्रृंखला नहीं बनती। ज्ञान की उत्पत्ति मन से है। ज्ञान मन का लक्षण है। मन, बुद्धि तथा विचार का प्रतीक से स बन्ध है।
प्रतीक पुल्लिंग शब्द है। प्रतीयते प्रत्येति वा इति। जिससे प्रतीत होता है, पहचाना जाता है वह प्रतीक हुआ। मनुष्य में चेतन-अचेतन, ज्ञात तथा अज्ञात मानस की विचार तथा विवेक शक्ति से ही प्रतीक पैदा होते हैं। भारतीय इतिहास के मध्ययुग में श्री देवनारायण फड़ पाट् ज्योति प्रतीक सृजन के प्रयोजन पर विद्वानों के इस कथन से प्रकाश पड़ता है कि- 'प्रतीक का मन तथा बुद्धि के आध्यात्मिक पक्ष से इतना घना स बन्ध है कि उसे समझने के लिए आध्यात्म विद्या से सहायता लेनी पड़ेगी।Ó धर्म के तथ्यों को बुद्धि सरलता से ग्रहण नहीं कर सकती। धर्म इतनी गूढ़ तथा रहस्यमय वस्तु है कि शब्दों के द्वारा उसको प्रकट नहीं किया जा सकता। इसलिए माध्यम रूप प्रतीक की आवश्यकता हुई। बॉक्सर के अनुसार- 'जो बात या विचार या वस्तु शब्दों द्वारा व्यक्त न की जा सके उसी को व्यक्त करने की कला का नाम प्रतीक है।Ó धार्मिक प्रतीकों का अस्तित्व ऐतिहासिक दृष्टि से गुर्जरकालीन स यता और संस्कृति से पहले भी था और अब भी है। केवल उन प्रतीकों के प्रति दृष्टिकोण में अन्तर आ गया है।
गुर्जरदेशीय धर्म संस्कृति काल में- 'तत्वत: हमारी पकड़ से बाहर ईश्वर तत्व... प्रचलित धर्म ग्रंथों ने लोकजीवन को ईश्वर से इतना दूर तथा मानव के लिए इतना दुर्भेद्य बना दिया कि धर्म का वह लक्ष्य ही समाप्त प्राय हो गया जिससे मनुष्य अपने मालिक की निकटता प्राप्त कर सके।Ó इस उलझन से मुक्ति का मार्ग सामान्यजन के लिए प्रतीक के माध्यम से प्रशस्त हुआ। मानव मन प्रत्येक वस्तु को चित्र रूप में बना लेने का प्रयास करता है। जुंग के अनुसार- उपास्य देव का अज्ञात मानस में बना हुआ चित्र ही देवमूर्ति बन जाता है। गाथा के अनुसार श्री देवनारायण फड़ में चित्रों का अंकन श्री देवनारायण कृपा (अन्त:प्रेरणा) से उनके कुलभाट् छोछू ने सृष्टि में अब तक हुई और भविष्य में होने वाली समग्र लीला का चित्र रूप अंकन करवाया तभी चित्रात्मक प्रतीक रूप श्री देवनारायण फड़ का बाह्य (भौतिक) स्वरूप आंखों के दृष्टि पथ में हुआ। यथार्थ गीता के संकलनकर्ता स्वामी अडग़ड़ानन्द जी का कथन- श्री कृष्ण जिस स्तर की बात करते हैं, क्रमश: चलकर उसी स्तर पर खड़ा होने वाला कोई महापुरुष ही अक्षरश: बता सकेगा कि श्रीकृष्ण ने जिस समय गीता का उपदेश दिया था उस समय उनके मनोगत भाव क्या थे? मनोगत समस्त भाव कहने में नहीं आते, कुछ तो कहने में आ पाते हैं, कुछ भाव भंगिमा से व्यक्त होते हैं और शेष पर्याप्त क्रियात्मक हैं जिन्हें कोई पथिक चलकर ही जान सकता है।
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बगड़ावतों का कुल भाट् छोछू जिसने श्री देवनारायण कृपा से अपने हृदय देश में अवतरित (प्रतिष्ठित) श्री देवनारायण सृष्टि लीला को चित्रमय प्रतीक रूप फड़ में अंकन करवाया तथा उनके प्रतीकार्थ को बगड़ावत भारत लोकवार्ता अथवा बगड़ावत श्री देवनारायण महागाथा रूप गाया। यही बात नागपहाड़ पुष्कर पर बगड़ावत भोज और भगवान शिव में हुए संवाद तथा श्री देवनारायण द्वारा बगड़ावत पुत्रों, माता साढू, राणी पीपळदे (लक्ष्मीरूपा) कुल भाट् छोछू तथा 33 करोड़ देवी-देवताओं के साक्ष्य में मन्दिर-मन्दिर प्रतिष्ठित श्री देवनारायण पाट्ज्योति प्रतीक दर्शन एवं पूजा, ध्यान-उपासना के स बन्ध में है।
यथार्थ गीता के अनुसार- श्रुत ज्ञान, पूर्व संचित भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान राशि का संकलन- मानव सृष्टि के आदि में भगवाभगवान श्री कृष्ण के श्रीमुख से नि:सृत अविनाशी योग अर्थात् श्रीमद् भगवद्गीता जिसकी विस्तृत व्या या वेद और उपनिषद् है, विस्मृति आ जाने पर उसी आदिशास्त्र को भगवान श्री$कृष्ण ने अर्जुन के प्रति पुर्नप्रकाशित किया। लोक आराध्य श्री देवनारायण को लोकमानस आस्था स्वरूप श्री विष्णु अथवा श्री कृष्ण के अवतार रूप स्वीकारता है। गुर्जरदेशीय बगड़ावत काल के समय भगवान श्री देवनारायण न बगड़ावतों के कुल भाट् छोछू के माध्यम से श्री देवनारायण फड़ पाट् ज्योति प्रतीक दर्शन प्रस्थापित सत्य को लोकहितार्थ बगड़ावत भारत लोकवार्ता स्वरूप व्यवहारत: प्रकाशित किया। बगड़ावत भारत लोकवार्ता का व्यवहारिक पक्ष- मनुष्य जीवन का प्रयोजन बैर से बैर का शमन नहीं, निरतिशय प्रेमानन्द भाव को उपलब्ध होना है। ईश्वर की प्रतीकात्मक सत्ता से सामाजिक सत्ता का एकीकरण है। भूख, प्यास, काम-वासना, यह सब मानव जीवन की अनित्य समस्याएं हैं। यदि समाज केवल इनका ही हल निकालता रहे तो साहित्य, कला, विज्ञान इनकी मनुष्य जीवन में आवश्यकता ही नहीं रहे। मनुष्य की आध्यात्मिक भूख, आध्यात्मिक माँग तथा हरेक प्राणी के साथ समरसता स्थापित नहीं होगी। प्रकृति अपने नियमों के अनुसार काम कर रही है। पर उसका कार्य नियम तथा व्यवस्था अनुसार कार्य करने का प्रतीक है। उस प्रतीक को यदि नहीं पहचाना गया तो प्रकृति का वरदान हमारे लिये लाभदायक सिद्ध नहीं होगा। स्त्री केवल भोग की इच्छा पूरी करने के लिए नहीं होती। उसका उपयोग आत्मा के एकीकरण के लिए, मातृत्व की व्यापकता के लिए, मातृशक्ति को जागृत करने के लिए है। विवाह का अर्थ केवल एक स्त्री को अपनाकर रखने के लिए नहीं है। विवाह का लक्ष्य भोग साधना भी नहीं है। बगड़ावत भारत की नारियाँ मातृत्व शक्ति की प्रतीक है। हिन्दू शास्त्र ने स्पष्ट किया है, विवाह सन्तानोत्पत्ति के लिए, पितृ ऋण से उऋण होने के लिए अपनी आत्मा को अनेक रूप में प्रकट करने के लिए है। अतएव स्त्री भोग का प्रतीक नहीं है, मातृशक्ति का प्रतीक है। इस प्रतीक को पहचानने से ही सांस्कृतिक उन्नयन संभव है।
गुर्जर वंश उद्धारक लोक आराध्य श्री देवनारायण पढै् पाट् ज्योति प्रतीक दर्शन की प्रस्थापना को हृदयंगम अथवा अंत:करण में अवतरण के लिए आगम-निगम शास्त्र के प्रतिपाद्य मंत्रशास्त्र के ज्ञान के लिए 36 शैव-शाक्त तत्वों को समझना भी आवश्यक है। जो श्री देवनारायण पढै् पाट् ज्योति में प्रतीकिकृत है। तंत्र-मंत्र-शास्त्र के अध्येता जॉन बुडरफ के अनुसार- शैव शाक्त शास्त्र में शक्ति के रूप में, (ज्ञान को विमर्श शब्द से) अभिहित किया गया है। ज्ञान के दो अंश हैं- अहमंश एवं इदमंश, जिनमें पहला आत्मा का ग्राहक अंश है और दूसरा ग्राह्य। प्रतीति अथवा ज्ञान की भी दो कोटियाँ हैं- पूर्ण (सकल), विश्व का सकल ज्ञान, और - त्रिविध जगत का परिच्छिन्न ज्ञान। परम ज्ञान जिसे (परा संवित) कहते हैं, निरा सूक्ष्म निर्विषय ज्ञान नहीं है। वह तो 'अहम और इदमÓ अर्थात् शिव और परा अव्यक्त शक्ति का अखण्ड एकात् य- एकरूपता है। परम शिव और शक्ति परस्पर अशि£ष्ट एवं प्रणयबद्ध होकर रहते हैं। निरतिशय प्रेम का ही नाम आनन्द है। यह निष्कल अथवा परम शिव की अवस्था है। यह तत्वातीत परासंवित है। पूर्ण जगत के रूप में इसकी परनाद एवं परावाक संज्ञा होती है। जगत शुद्ध शक्ति रूप है। माया एवं पंञ्चकंचुको के अधीनस्थ चैतन्य का नाम ही पुरुष है। ये कंचुक आत्मा की नैसर्गिक पूर्णता को संकुचित कर देते हैं। परम शिव की सर्वज्ञता और सर्वकर्तृता विद्या और कला के व्यापार से परिच्छिन्न हो जाती है। पुरुष अल्पज्ञ और अल्प कर्ता बन जाता है। शिव के दो रूप हैं- विश्वातीत- विश्वोत्पादक एवं विश्वात्मक- निष्कल परम शिव के सकल रूप को शिव तत्व कहते हैं, जो उन्मनी शक्ति का अधिष्ठान है। अपने सकल रूप में क्रियाशील होकर शिव व्यक्त जगत के रूप में अपना ही ज्ञेय बन जाता है। शिव तत्व निष्पन्द परम शिव का प्रथम स्पन्द है। शक्ति तत्व शिव तत्व का एक मात्र निषेधक रूप है। निषेध ही शक्ति का व्यापार है, चैतन्य रूपा वह स्वयं ही अपना निषेध या प्रत्या यान करती है। शक्ति तत्व को शिव की अव्यक्त एवं सन्तत स वायिनी इच्छा भी कहते हैं। परम एकात्म ज्ञान अथवा अभेद ज्ञान ही भेद अथवा द्वैत ज्ञान का भी मूल कारण है। शिव-शक्ति तत्व अखिल ब्रह्माण्ड का बीज एवं योनि है। ज्ञान के प्रथम आभास को 'सदा यÓ अथवा सदाशिव तत्व कहते हैं।
सदाशिव वही है जिन्हें वैष्णव विष्णु के नाम से पुकारते हैं और बौद्ध अवलोकितेश्वर कहते हैं। शास्त्र पर परा के अनुसार अवतारों के बीज यही है। मंत्र शास्त्र में जिसे नाद शक्ति कहते हैं। वह इसी तत्व में निवास करती है।
चतुर्थ तत्व को विद्या तत्व कहते हैं, यहाँ तक शुद्ध भावराज्य है। इस तत्व के नीचे विज्ञान रूप जीवों की उत्पत्ति या सृष्टि है। यहाँ माया शक्ति का प्रादुर्भाव है, यही पुरुष-प्रकृति तत्व है। पुरुष का अर्थ केवल मनुष्य अथवा जीव नहीं है, जगत की प्रत्येक वस्तु ही पुरुष है। चैतन्य अथवा ज्ञान जिस वस्तु का चिन्तन करता है। अर्थात् जिस वस्तु के साथ तादात् य भावना करता है उसी के आकार का बन जाता है।
तत्वों के साथ कलाओं का भी स बन्ध है। ये कलाएँ शक्ति रूप में तत्वों की क्रियाएं हैं। सृष्टि ब्रह्मा की कला है। पालन विष्णु की कला है और मृत्यु रूद्र की कला है। शाक्त तंत्र में 94 कलाओं का उल्लेख मिलता है। 19 कलाएं सदाशिव की, 6 ईश्वर की, 11 रूद्र की, 10 विष्णु की, 10 ब्रह्मा की, उतनी ही अग्नि की, 12 सूर्य की और 16 चन्द्रमा की मानी गई है। 50 मातृका कलाएं हैं।
गुर्जर वंश उद्धारक नारायण ज्योति स्वरूप 11 कला अवतार भगवान श्री देवनारायण लोक उपास्य है। अनादि नारायण सूक्त, वैदिक ऋषियों, भगवान श्रीराम, योगेश्वर कृष्ण, महात्मा मूसा, महात्मा जरथुस्त्र, भगवान महावीर, गौतम बुद्ध, मसीह ईसा, हजरत मोह मद, सलल्लाहु, आदि शंकराचार्य, संत कबीर, संत गुरुनानक, स्वामी दयानन्द, स्वामी श्री परमानन्द जी के शिष्य अडग़ड़ानन्द जी ने वस्तुत: एक ही बात कही है, वही बात श्री देवनारायण फड़ पाट् ज्योति में प्रतीकीकृत और बगड़ावत भारत लोकवार्ता रूप लोक में प्रचलित है। बगड़ावत भारत लोकवार्ता को श्रोता उनकी बुद्धि पर त्रिगुणात्मिका प्रकृति के जिस गुण का जितना प्रभाव है उसी के स्तर से बगड़ावत भारतवार्ता को समझ पाता है। तत्वत: श्री देवनारायण पढै् पाट् ज्योति प्रतीकदर्शन प्रतीक्रियात्मक कर्म नहीं व्यवहारत: क्रियात्मक कर्म का दर्शन है। श्वांस-प्रश्वास चिन्तन कर्म परायण ध्यान योग का श्री देवनारायण द्वारा राणी पीपळदे एवं लोक के लिये प्रकाशित कर्म योग दर्शन है।
हेमराज गुर्जर जैतगढ़ आसींद भीलवाड़ा
प्रदेश मीडिया प्रभारी अखिल भारतीय युवा गुर्जर महासभा राजस्थान
जिला मीडिया प्रभारी पथिक सेना संगठन भीलवाड़ा
सह-संपादक पथिक टुडे राष्ट्रीय गुर्जर मासिक पत्रिका
मोबाइल नंबर 9828040794 

टिप्पणियाँ

  1. श्री देवनारायण की जयंती की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं

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  2. श्री देवनारायण भगवान की जय हो

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  3. भाई साहब श्री देवनारायण भगवान का देवनारायण पुराण की पीडिएफ देने की कृपा करे ꫰

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  4. जय श्री बगड़ावत गुर्जर जय श्री देव

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